पति-पत्नी का रिश्ता अक्सर तब खटास पर आता है, जब वे एक-दूसरे की बजाय खुद के प्रति ज्यादा लगाव रखने लगते हैं। समर्पण का भाव सूखते ही प्रेम का पौधा मुरझाने लगता है। पति-पत्नी का रिश्ता समर्पण की डोर से बंधा होता है। पति, ऐसा हो जो पत्नी को अपने आधे शरीर की तरह माने, पत्नी वो जो पति के बिना खुद को अधूरा समझे। दोनों में एक-दूसरे पर न्योछावर होने का भाव हो। तनते रिश्ते और कम होते समर्पण से ही दाम्पत्य नर्क हो जाता है।
श्रीरामजी को वनवास जाना था। वे चाहते थे सीताजी माँ कौशल्या के पास रुक जाएं। सीताजी उनके साथ जाना चाहती थीं। कौशल्याजी भी चाहती थीं सीता न जाए। सास, बहू और बेटा, ऐसा त्रिकोण यहां पैदा हो गया था।
दुनिया में इस रिश्ते ने कई घर बना दिए और बिगाड़ दिए। लेकिन रामजी के धैर्य, सीताजी की समझ और कौशल्याजी की समझ ने रघुवंश का इतिहास बदल दिया। हमारे अवतारों की यह घटनाएं हमें अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े संदेश दे जाती हैं। हमारे परिवारों में सास-बहू पति-पत्नी के संबंधों में जो विच्छेदन आता है उसका बड़ा मनोवैज्ञानिक संकेत है।
जब कोई किसी परिवार में किसी पर निर्भर होता है तो परिवार के सदस्य को लगता है कि हम उसकी जरूरत पूरी कर रहे हैं। माँ-बाप बच्चों को जब बड़ा करते हैं तो वे इसलिए प्रसन्न रहते हैं कि बच्चे उन पर निर्भर हैं। जैसे ही बच्चे बड़े हो जाते हैं तो वे अपना काम खुद करने लगते हैं। उनका अपना संसार बस जाता है, अब वो माँ-बाप पर निर्भर नहीं हैं। तब एक मनोवैज्ञानिक भीतरी अन्त:विरोध शुरू होता है।
सास-बहू के झगड़े का एक कारण यह भी होता है कि सास सोचती है कि इस बेटे को जो सदा से मेरे ऊपर निर्भर था, मुझे उसे बुद्धिमान बनाने में २५ साल लगे और इस नई औरत ने पांच मिनट में उसको बुद्धू बना दिया। जो बेटा सदा से मुझ पर निर्भर था वह आज इस पर निर्भर हो गया। यही हाल पति-पत्नी के होते हैं। वह भी एक-दूसरे को एक-दूसरे पर निर्भर करना चाहते हैं। दाम्पत्य का आधार प्रेम होना चाहिए।
हम पहले भी यह बात कर चुके हैं कि जिस परिवार के केन्द्र में प्रेम होगा वह परिवार फिर अहंकाररहित होगा उसमें बड़ा-छोटा, तेरा-मेरा नहीं होता और इसलिए विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है।
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